“आप और हम, दोनो अपनी दुनिया के बारे में सोचतें हैं, समझते हैं और लिखतें हैं । हम दोनों एक ही ट्रेन में सवार हैं ।मंजिल एक ही है हमारी । फर्क महज़ इतना है की हम बेटिकट मुसाफ़िर हैं, जिनके पास कोई बड़ी बड़ी डिग्रियां नहीं है ।”
“You and I, we both write or document our reflections about the world we inhabit. We are co-passengers on a train with a common destination. The difference is that we are ticketless travellers with no big degrees in hand.”
यजुवेंद्र नागर (जानू), सावदा घेवरा , दिल्ली
Yajuvendra Nagar (Janu), Savda Ghevra, Delhi
“बेटिकट मुसाफ़िर”
आपका स्वागत करते हैं!
Welcome aboard
“Ticketless Travellers”!
“बेटिकट मुसाफ़िर” मे आप सबका स्वागत है। यह एक ऐसा मुखर सफ़र है, जहाँ मुसाफ़िर तो असमान हैं, पर दोनो की मंज़िल एक। हमसफ़र हैं अन्थ्रोपोलॉजिस्ट जिनके पास „टिकट “ है और हैं ज़माने भर की डिग्रियां । साथ में है „बेटिकेट “ दिल्ली के मज़दूर समुदाय के लोग। दोनों अपनी दुनिया को समझने और उसका विश्लेषण करने निकल पड़े हैं।
Welcome aboard “Ticketless Travellers”, a cheeky allegory, which portrays a shared journey of unequals. Onboard are anthropologists with their training and other “tickets”; alongside them ride the “ticketless”, working class residents of Delhi. All are on a path to comprehend and critique their life worlds.
इस सफर के दौरान, आप दिल्ली को उन लोगों की कहानियों के ज़रिये देखेंगे, जिनकी मेहनत के बल पर यह शहर खड़ा है। अनोखा नज़रिया, अनोखे अनुभव और अनोखी समालोचना। इस साझा सफर के लेन देन मे आख़िरकार सवाल यही उठता है, कौन है वो जिनके पास „टिकट “ है और कौन करते हैं „बेटिकेट“ मुसाफ़िरी।
You will traverse the lanes of Delhi through stories told by writers whose labour built this city. You will see the city and its people through their unique perspective and share their insights, experiences and critiques. It is the exchange between those on board which makes this journey an adventure where we ultimately ask who has a ticket and who does not?
अंकुरवाली गली
The Ankur Lane
स्वास्थ्य सुविधाओं से जूझता मज़दूर वर्ग
Negotiating health infrastructure
“बेटिकट मुसाफ़िर” के इस अध्याय मे हम उन कहानियों से रूबरू होंगे, जो ये बताते हैं कि क्या होता है जब दिल्ली मे कोई मज़दूर बीमार पड़ता है। उसके परिवार वालों पर क्या बीतती है? लेकिन उसके पहले हमे ये समझना होगा, की हम लोग किसको बीमार मानते हैं। जब तक पैरो पर खड़े हैं, काम कर रहे हैं, तब तक कोई बीमारी नही है। जिस दिन बिस्तर से न उठ पाये , उस दिन हम बीमार हैं। वैसे तो गोली खाकर गाड़ी चल जाती है। वरना जितने दिन हम अपने आप को बीमार पाते हैं , उतने दिन कान नही, रोज़गार नही , घर में फांके। गंभीर बीमारी जब किसी को लग जाती है , तब पूरे घर को एक अंधे कुए में ढकेलती हुई सी लगती है- ये बीमारी शारीरिक नहीं होती , लेकिन गरीबी की बीमारी होती है।
“मर्ज़, मरीज़ और दवा” से एक अंश
– अंकुर लेखक समूह
In this chapter of the “Ticketless Travellers”, we will come face to face with stories, which share what happens when an ordinary labourer falls ill in the city of Delhi. What do they do? What does their family go through? However, before that we need to understand what is meant by being ill. As long as we are on our feet and working, we aren’t ill. The day we take to our beds, we fall ill. Usually, we get by with popping a pill. Otherwise, on days we when we are ill, we can’t work, there are no wages and our family goes hungry. When we fall critically ill, then it seems like the entire family is pushed into a bottomless well – this isn’t a physical phenomenon, rather it is one induced by poverty.
Adapted for the Website from, “Illness, Patients and Cure” by the Ankur Writers Collective
कोविड के दौरान दिल्ली
Delhi during Covid
दिल्ली एक ऐसा शहर है जो लोगों की भीड़, इमारतों के जमघट और ट्रैफिक के शोर से सराबोर है। यहाँ परंपरा और आधुनिकता एक साथ बास्ते हैं। पर बाकि दुनिया की तरह, कोविड के दौरान दिल्ली भी निस्तब्ध और अचल सी हो गयी। ‚बेटिकट मुसाफ़िर‘ के इस अध्याय मे आप कोविड के दौरान दिल्ली के श्रमिक वर्ग के अनुभव और कहानियों के ज़रिये उनका आँखों देखा हाल जानेंगे। ये ऐसी बस्तियां हैं, जहाँ कोलाहल अधिक, जगह संकुचित और जीवन अनिश्चता के कगार पर खड़ी है। कैसे बिताये इन्होने कोविड के वो पल?
Delhi is a city packed with a mass of people, a jumble of buildings and the clamour of traffic. Where the modern and the traditional live cheek by jowl. Much like the rest of the world, Delhi also came to a standstill during Covid. This chapter of the “Ticketless Travellers”, shares with you vignettes of the pandemic through the eyes of the working-class who inhabit spaces where the din is louder, spaces are cramped and lives more precarious. How did they live and experience Covid?
रचनाकार
Contributors
हम ज़मीनी लेखक हैं,
ज़मीनी कहानियों को लिखतें हैं।
अगर हमे न पढ़ा जाए तो कीन्हे पढ़ा जाए?
अगर हमे न सुना जाए तो कीन्हे सुना जाए?
– नंदिनी हलदर, सावदा, दिल्ली, २००२
आइए, उन लोगों से मिलें जिन्होंने “बेटिकट मुसाफ़िर‘ की संकल्पना की, लिखकर उसमे जान डाली, उसका डिज़ाइन किया और फिर अपने पैरों पर उसे खड़ा किया।
We are organic writers,
We write about our world.
If we are not read, then who will you read?
If we are not heard, then who will you hear?
– Nandini Haldar, Savda, Delhi 2002
Come meet the people who have conceptualised, written, built, designed and created the ‘Ticketless Travellers.’
संस्थाएँ शीर्षक
Institutions Headline
अंकुर सोसाइटी फॉर अल्टरनेटिव्ज़ इन एजुकेशन
Ankur Society for
Alternatives in Education
अंकुर तीन दशकों से अधिक समय से दिल्ली के हाशिये पर रहने वाले इलाकों में बच्चों, युवाओं और समुदायों के साथ प्रयोगात्मक शिक्षाशास्त्र के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अंकुर शिक्षा के माध्यम से हाशिए पर रहने वाले लोगों को सशक्त बनाना चाहता है, ताकि वे अपने अनुभवों और सन्दर्भों पर विचार कर सकें और गरिमापूर्ण जीवन के लिए प्रयास कर सकें ।
For more than three decades, Ankur has been working in the field of experimental pedagogy, with children, young people, and communities in marginalised neighbourhoods of Delhi. Ankur seeks to empower the marginalised, through education, to reflect on their experiences and contexts, and strive for a life of dignity.
मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंथ्रोपोलॉजी
Max Planck Institute for
Social Anthropology
मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर सोशल एंथ्रोपोलॉजी सामाजिक – सांस्कृतिक मानवविज्ञान में अनुसंधान के लिए दुनिया के अग्रणी केन्दों में से एक है । मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट की सभी शोध परयोजनाओं में सामाजिक परिवर्तन का तुलनात्मक विश्लेषण आम बात है, यह मुख्य रूप से इस क्षेत्र में है कि इसके शोधकर्ता मानवशाश्त्रीय सिद्धांत में योगदान करते हैं, हालांकि कई कार्यक्रमों में महत्व और राजनीतिक सामयिकता भी लागू होती है । फील्डवर्क लगभग सभी परियोजनाओं का एक अनिवार्य हिस्सा है ।
सन्स्थान में तीन शैक्षणिक विभाग है :
आर्थिक प्रयोग का मानवविज्ञान
राजनीति और शासन का मानवविज्ञान
कानून एवं मानव विज्ञान
The Max Planck Institute for Social Anthropology is one of the world’s leading centres for research in socio-cultural anthropology. Common to all research projects at the Max Planck Institute is the comparative analysis of social change; it is primarily in this domain that its researchers contribute to anthropological theory, though many programmes also have applied significance and political topicality. Fieldwork is an essential part of almost all projects. The Institute has three academic departments: Anthropology of Economic Experimentation, Anthropology of Politics and Governance, and Law & Anthropology.
लीपज़िग विश्वविद्यालय
Leipzig University
लिपजिग विश्वविद्यालय की स्थापना 1409 में हुई थी और जब शीर्ष श्रेणी के अनुसंधान और चिकत्सा विशेषज्ञता की बात आती है तो यह जर्मनी के अग्रणी विश्वविद्यालयों में से एक है। यह मानविकी और सामाजिक विज्ञान से लेकर प्राकृतिक और जीवन विज्ञान तक विषयों की एक अनूठी विविधता प्रदान करता है ।
Leipzig University was founded in 1409 and is one of Germany’s leading universities when it comes to top-class research and medical expertise. It offers a unique variety of subjects, from the humanities and social sciences to the natural and life sciences.
जर्मन रिसर्च फाउंडेशन
German Research Foundation
डॉयचे फ़ोर्सचुंग्सगेमिंसचाफ्ट (DFG, जर्मन रिसर्च फाउंडेशन) जर्मनी में केंद्रीय स्वशासी अनुसंधान निधि संगठन है। डीएफजी विज्ञान और मानविकी की सेवा करता है और विश्वविद्यालयों और गैर –विश्वविद्यालय अनुसंधान संस्थानों में अपने सभी रूपों और विषयों में उच्चतम गुणवत्ता के अनुसंधान को बढ़ावा देता है । ज्ञान – संचालित अनुसंधान के क्षेत्र में अकादमिक समुदाय द्वारा विकसित परियोजनाओं के वित्तपोषण पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
The Deutsche Forschungsgemeinschaft (DFG, German Research Foundation) is the central self-governing research funding organisation in Germany. The DFG serves the sciences and humanities and promotes research of the highest quality in all its forms and disciplines at universities and non-university research institutions. The focus is on funding projects developed by the academic community itself in the area of knowledge-driven research.