Driver sleeps in his parked Auto. Photo: Ankur Writers Collective
Bus stop at a train station. Photo:Ankur Writers Collective
Pigeons picking for food. Photo: Ankur Writers Collective

“आप और हम, दोनो अपनी दुनिया के बारे में सोचतें हैं, समझते हैं और लिखतें हैं । हम दोनों एक ही ट्रेन में सवार हैं ।मंजिल एक ही है हमारी । फर्क महज़ इतना है की हम बेटिकट मुसाफ़िर हैं, जिनके पास कोई बड़ी बड़ी डिग्रियां नहीं है ।”

“You and I, we both write or document our reflections about the world we inhabit. We are co-passengers on a train with a common destination. The difference is that we are ticketless travellers with no big degrees in hand.”

यजुवेंद्र नागर (जानू), सावदा घेवरा , दिल्ली
Yajuvendra Nagar (Janu), Savda Ghevra, Delhi

Production Stills @ Dakshinpuri. Photo: Kavita Dasgupta
The Decorated shelf CU_Medicine Box. Photo: Ankur Writers Collective
Dhaba@Savda_CU. Photo:Kavita Dasgupta
Lakhmi & Sabiha writing. Photo: Yajuvendra

“बेटिकट मुसाफ़िर”

 आपका स्वागत करते हैं!

Welcome aboard
“Ticketless Travellers”!

“बेटिकट मुसाफ़िर” मे आप सबका स्वागत है। यह एक ऐसा मुखर सफ़र है, जहाँ मुसाफ़िर तो असमान हैं, पर दोनो की मंज़िल एक। हमसफ़र हैं अन्थ्रोपोलॉजिस्ट जिनके पास „टिकट “ है और हैं ज़माने भर की डिग्रियां । साथ में है „बेटिकेट “ दिल्ली के मज़दूर समुदाय के लोग। दोनों अपनी दुनिया को समझने और उसका विश्लेषण करने निकल पड़े हैं।

Welcome aboard “Ticketless Travellers”, a cheeky allegory, which portrays a shared journey of unequals. Onboard are anthropologists with their training and other “tickets”; alongside them ride the “ticketless”, working class residents of Delhi. All are on a path to comprehend and critique their life worlds.

A lane in Sanjay Camp, Dakshinpuri. Photo: Kavita Dasgupta

इस सफर के दौरान, आप दिल्ली को उन लोगों की कहानियों के ज़रिये देखेंगे, जिनकी मेहनत के बल पर यह शहर खड़ा है। अनोखा नज़रिया, अनोखे अनुभव और अनोखी समालोचना। इस साझा सफर के लेन देन मे आख़िरकार सवाल यही उठता है, कौन है वो जिनके पास „टिकट “ है और कौन करते हैं „बेटिकेट“ मुसाफ़िरी।

You will traverse the lanes of Delhi through stories told by writers whose labour built this city. You will see the city and its people through their unique perspective and share their insights, experiences and critiques. It is the exchange between those on board which makes this journey an adventure where we ultimately ask who has a ticket and who does not?

गलियों की भूलभुलैया

Maze of lanes

सावदा में अनेकों गलियां हैं । इतनी गलियां हैं की हम किस गली में रहते हैं ये पहचान पाना थोड़ा कठिन है । पर मुझे वह गली का ध्यान हमेशा रहता है जिसमे अंकुर है । कभी भी कोई पूछता मुझे, किताब हाथ में लिए जाते देख, की कहाँ जा रहे हो? मै खुश होक कहता, अंकुर वाली गली । फ़ाइनल एक्साम्स ख़त्म हो गयें हैं और में ये सोचकर खुश हो रहा हूँ की अब मैं सब दोस्तों से मिलूंगा, कितना मज़ा आएगा, कितनी नई किताबें पडूंगा और कितनी नै चीज़े लिखूंगा ।

Savda is a maze of lanes. So many that sometimes I forget my own. But one lane I never forget is the one with Ankur. As a child, when I would walk there, people would say, “where are you off to?” I would say with great pride, “I am going to the lane. The lane with the Ankur center.” My final exams are over at last and I have been waiting to go to Ankur. As I walk down with a new book tucked under my arm, I think of all my friends, of all the fun I will have, all the chats and all the new words I will write.

आंगनबाडी

Kindergarten

ये तस्वीर मुझे मेरे बचपन के उन दिनों की याद दिलाता है, जब मेरी चाहत नहीं होती थी रजाई से बहार कदम भी । तब मम्मी की डांट फटकार मुझे मेरे भाई बहनो के साथ, हांथो में बर्तन लेकर गली में खड़ा कर देती थी । हम अपने अपने चप्पल पहनकर आंगनवाड़ी के तरफ चल पड़ते । ठण्ड और धुंध में हम भटकते भटकते आंगनवाड़ी की गेट तक पहुंच ही जाते । जबसे हमने चलना सीखा तब से हम हफ्ते में पांच दिन सुबह और दुपहर का खाना यही खातें हैं । जब आंगनवाड़ी में ताला लगा होता तो हम मु लटकाये, खली बर्तन लिए वापस आते । पर ज़्यादातर हम ख़ुशी ख़ुशी चप्पल फटकारते हुए वापस आते

This picture takes me back to those cold winter mornings when I wanted to stay in the warm quit forever. But mummy’s scolding would wake us up and along with my brothers and sisters, we would step out into the foggy lanes. We would slip on our flip flops, pick up our bowls and head towards the anganwadi. On foggy winter mornings, with bleary eyes and holding onto each other, we would meander through the lanes of Savda and somehow find our way to the gates of the anganwadi. Since we could walk, we had been coming here six days a week. We would get our morning breakfast and lunch here. On days when the anganwadi was shut, we would drag our feet home but on most days our flip flops would slap in tune to our happy mood and full bowls.

अव्यवस्थित जीवन

Jumbled lives

ये तंग सघन और व्यस्त गलियां , जहां बचपन यूं ही घूमते हुए बड़ा हो जाता है दस कदम पर बने आमने-सामने ये घर बिजली के तारों के कनेक्शन के साथ साथ रिश्तो के कनेक्शन भी बना लिया करते हैं बारह- बारह गज के कुछ टूटे, कुछ बनते, कुछ पक्के कुछ कच्चे, टाइल वाले, एक मंजिला, दो मंजिला अपना या किराए रायवाला इन ढेरों आशियानो से यह गलियां आकार लेती है । जहां उलझे तार कपड़े सुखाने की रस्सी, आंगन या चौखट बतियाने का केंद्र बन जाता । घर तो एक है पर खेलने को पूरी गली हमारी है यह गलियां , गलियां नहीं है कहने को यहां बसी आबादी की दुनिया को दर्शाती है ।

In these narrow, dense and busy lanes of Savda, childhood unknowingly walks into adulthood. Much like the jumble of electrical wires, these houses facing each other, connect through a fine mesh of relationships. Some of these houses are broken, some being rebuilt, some temporary, some permanent, some tiled, some with one floor, some two, some owned, some on rent… all these dwellings and dreams give shape and meaning to these lanes. It is true that we have just one home but we have the entire lane for a playground. These lanes are not just our home but they represent our world.

एक अलग तरह का घोड़ा

A different kind of horse

सावदा में इसे जीना नहीं, घोड़ियां बोलते है। यह दो जीने के मेल से बनती है। जब किसी दीवार या छत में पेंट करना होता है तो इसको बिना किसी सहारे के कही भी खड़ा कर सकते है। उसी में पेंट का डिब्बा टांग कर दीवार या छत में पेंट करते समय उसी में चढ़े होते है। और छत में नक्काशी और डिजाइन बनाते है। सावदा के लिए यह बास का जीना शुरू से आज तक जगह को बनाने और सजाने में कारीगर की साथी बनती है।

In Savda, this isn’t called a ladder, it is called a ghorian (horse). It is constructed by tightly tying together two ladders at one end with jute twines. While painting a house or a wall, you can prop up the horse anywhere without any support. A bucket of paint can be hung with great efficiency on one of its protruding prongs. These horses are a workman’s companion, who together build and transform a bare resettlement colony into a place people call home.

A swept yard. Photo: Meenakshi
People in front of a big hospital. Photo: Kavita Dasgupta
Patients & families @ a big hospital in Delhi. Photo: Kavita Dasgupta
A Foodtruck sharing food. Photo: Kavita Dasgupta

स्वास्थ्य सुविधाओं से जूझता मज़दूर वर्ग

Negotiating health infrastructure

 

“बेटिकट मुसाफ़िर” के इस अध्याय मे हम उन कहानियों से रूबरू होंगे, जो ये बताते हैं कि क्या होता है जब दिल्ली मे कोई मज़दूर बीमार पड़ता है। उसके परिवार वालों पर क्या बीतती है? लेकिन उसके पहले हमे ये समझना होगा, की हम लोग किसको बीमार मानते हैं। जब तक पैरो पर खड़े हैं, काम कर रहे हैं, तब तक कोई बीमारी नही है। जिस दिन बिस्तर से न उठ पाये , उस दिन हम बीमार हैं। वैसे तो गोली खाकर गाड़ी चल जाती है। वरना जितने दिन हम अपने आप को बीमार पाते हैं , उतने दिन कान नही, रोज़गार नही , घर में फांके। गंभीर बीमारी जब किसी को लग जाती है , तब पूरे घर को एक अंधे कुए में ढकेलती हुई सी लगती है- ये बीमारी शारीरिक नहीं होती , लेकिन गरीबी की बीमारी होती है।

 

“मर्ज़, मरीज़ और दवा” से एक अंश
– अंकुर लेखक समूह

In this chapter of the “Ticketless Travellers”, we will come face to face with stories, which share what happens when an ordinary labourer falls ill in the city of Delhi. What do they do? What does their family go through? However, before that we need to understand what is meant by being ill. As long as we are on our feet and working, we aren’t ill. The day we take to our beds, we fall ill. Usually, we get by with popping a pill. Otherwise, on days we when we are ill, we can’t work, there are no wages and our family goes hungry. When we fall critically ill, then it seems like the entire family is pushed into a bottomless well – this isn’t a physical phenomenon, rather it is one induced by poverty.

Adapted for the Website from, “Illness, Patients and Cure” by the Ankur Writers Collective

Locked up gate during covid lockdown. Photo: Ankur Writers Collective
Locked up gate during covid lockdown. Photo: Ankur Writers Collective
Locked up gate during covid lockdown. Photo: Ankur Writers Collective
Locked up gate during covid lockdown. Photo: Ankur Writers Collective

कोविड के दौरान दिल्ली

Delhi during Covid

दिल्ली एक ऐसा शहर है जो लोगों की भीड़, इमारतों के जमघट और ट्रैफिक के शोर से सराबोर है। यहाँ परंपरा और आधुनिकता एक साथ बास्ते हैं। पर बाकि दुनिया की तरह, कोविड के दौरान दिल्ली भी निस्तब्ध और अचल सी हो गयी। ‚बेटिकट मुसाफ़िर‘ के इस अध्याय मे आप कोविड के दौरान दिल्ली के श्रमिक वर्ग के अनुभव और कहानियों के ज़रिये उनका आँखों देखा हाल जानेंगे। ये ऐसी बस्तियां हैं, जहाँ कोलाहल अधिक, जगह संकुचित और जीवन अनिश्चता के कगार पर खड़ी है। कैसे बिताये इन्होने कोविड के वो पल?

Delhi is a city packed with a mass of people, a jumble of buildings and the clamour of traffic. Where the modern and the traditional live cheek by jowl. Much like the rest of the world, Delhi also came to a standstill during Covid. This chapter of the “Ticketless Travellers”, shares with you vignettes of the pandemic through the eyes of the working-class who inhabit spaces where the din is louder, spaces are cramped and lives more precarious. How did they live and experience Covid?

रचनाकार

Contributors

अंकुर कलेक्टिव Ankur Collective

तहरीन बानो Tehreen Bano

संध्या Sandhya

मीनाक्षी Meenakshi

नंदिनी कुशवाहा Nandini Khushwaah

नंदनी Nandni

रौशनी खातून Roshni Khatun

सबीहा हलीमा Sabiha Halima

तनिष्का Tanishka

अमर सिंघ Amar Singh

प्रो. उर्सुला राओ, प्रजेक्ट निर्देशिका Prof. Ursula Rao

कविता दासगुप्ता Kavita Dasgupta

प्रभात कुमार झा Prabhat K. Jha

शर्मिला भगत Sharmila Bhagat

लख्मी Lakhmi

यजुवेंद्र नागर Yajuvendra Nagar (Janu)

यानिक बेंडर Jannik Bender

हम ज़मीनी लेखक हैं,
ज़मीनी कहानियों को लिखतें हैं।
अगर हमे न पढ़ा जाए तो कीन्हे पढ़ा जाए?
अगर हमे न सुना जाए तो कीन्हे सुना जाए?
– नंदिनी हलदर, सावदा, दिल्ली, २००२

 

आइए, उन लोगों से मिलें जिन्होंने “बेटिकट मुसाफ़िर‘ की संकल्पना की, लिखकर उसमे जान डाली, उसका डिज़ाइन किया और फिर अपने पैरों पर उसे खड़ा किया।

We are organic writers,
We write about our world.
If we are not read, then who will you read?
If we are not heard, then who will you hear?
– Nandini Haldar, Savda, Delhi 2002

Come meet the people who have conceptualised, written, built, designed and created the ‘Ticketless Travellers.’

संस्थाएँ शीर्षक

Institutions Headline

अंकुर सोसाइटी फॉर अल्टरनेटिव्ज़ इन एजुकेशन

Ankur Society for
Alternatives in Education

Ankur Society for alternatives in education – logo

अंकुर तीन दशकों से अधिक समय से दिल्ली के हाशिये पर रहने वाले इलाकों में बच्चों, युवाओं और समुदायों के साथ प्रयोगात्मक शिक्षाशास्त्र के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अंकुर शिक्षा के माध्यम से हाशिए पर रहने वाले लोगों को सशक्त बनाना चाहता है, ताकि वे अपने अनुभवों और सन्दर्भों पर विचार कर सकें और गरिमापूर्ण जीवन के लिए प्रयास कर सकें ।

For more than three decades, Ankur has been working in the field of experimental pedagogy, with children, young people, and communities in marginalised neighbourhoods of Delhi. Ankur seeks to empower the marginalised, through education, to reflect on their experiences and contexts, and strive for a life of dignity.

मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंथ्रोपोलॉजी

Max Planck Institute for
Social Anthropology

Max Planck Institute for Social Anthropology – Logo

मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर सोशल एंथ्रोपोलॉजी सामाजिक – सांस्कृतिक मानवविज्ञान में अनुसंधान के लिए दुनिया के अग्रणी केन्दों में से एक है । मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट की सभी शोध परयोजनाओं में सामाजिक परिवर्तन का तुलनात्मक विश्लेषण आम बात है, यह मुख्य रूप से इस क्षेत्र में है कि इसके शोधकर्ता मानवशाश्त्रीय सिद्धांत में योगदान करते हैं, हालांकि कई कार्यक्रमों में महत्व और राजनीतिक सामयिकता भी लागू होती है । फील्डवर्क लगभग सभी परियोजनाओं का एक अनिवार्य हिस्सा है ।
सन्स्थान में तीन शैक्षणिक विभाग है :
आर्थिक प्रयोग का मानवविज्ञान
राजनीति और शासन का मानवविज्ञान
कानून एवं मानव विज्ञान

The Max Planck Institute for Social Anthropology is one of the world’s leading centres for research in socio-cultural anthropology. Common to all research projects at the Max Planck Institute is the comparative analysis of social change; it is primarily in this domain that its researchers contribute to anthropological theory, though many programmes also have applied significance and political topicality. Fieldwork is an essential part of almost all projects. The Institute has three academic departments: Anthropology of Economic Experimentation, Anthropology of Politics and Governance, and Law & Anthropology.

लीपज़िग विश्वविद्यालय

Leipzig University

Leipzig University – Logo

लिपजिग विश्वविद्यालय की स्थापना 1409 में हुई थी और जब शीर्ष श्रेणी के अनुसंधान और चिकत्सा विशेषज्ञता की बात आती है तो यह जर्मनी के अग्रणी विश्वविद्यालयों में से एक है। यह मानविकी और सामाजिक विज्ञान से लेकर प्राकृतिक और जीवन विज्ञान तक विषयों की एक अनूठी विविधता प्रदान करता है ।

Leipzig University was founded in 1409 and is one of Germany’s leading universities when it comes to top-class research and medical expertise. It offers a unique variety of subjects, from the humanities and social sciences to the natural and life sciences.

जर्मन रिसर्च फाउंडेशन

German Research Foundation

German Research Foundation – Logo

डॉयचे फ़ोर्सचुंग्सगेमिंसचाफ्ट (DFG, जर्मन रिसर्च फाउंडेशन) जर्मनी में केंद्रीय स्वशासी अनुसंधान निधि संगठन है। डीएफजी विज्ञान और मानविकी की सेवा करता है और विश्वविद्यालयों और गैर –विश्वविद्यालय अनुसंधान संस्थानों में अपने सभी रूपों और विषयों में उच्चतम गुणवत्ता के अनुसंधान को बढ़ावा देता है । ज्ञान – संचालित अनुसंधान के क्षेत्र में अकादमिक समुदाय द्वारा विकसित परियोजनाओं के वित्तपोषण पर ध्यान केंद्रित किया गया है।

The Deutsche Forschungsgemeinschaft (DFG, German Research Foundation) is the central self-governing research funding organisation in Germany. The DFG serves the sciences and humanities and promotes research of the highest quality in all its forms and disciplines at universities and non-university research institutions. The focus is on funding projects developed by the academic community itself in the area of knowledge-driven research.